खबरिस्तान नेटवर्क। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति (ccs) की बैठक में 1960 में हुए सिंधु जल समझौते को तत्काल प्रभाव से स्थगित कर दिया है। क्या है ये समझौता और इससे पाकिस्तान को क्या फर्क पड़ेगा। आईए जानते हैं।
सिंधू पाकिस्तान की लाइफलाइन है। पाकिस्तान को जाने वाला पानी अगर भारत रोक देता है तो पाकिस्तान के हालात बद्तर हो जाएंगे। सिंधु और सहायक नदियां चार देशों से होकर गुजरती हैं। पाकिस्तान में पानी का 93 फीसदी हिस्सा सिंचाई के लिए इस्तेमाल किया जाता है, जिसके बिना खेती असंभव है। इस पानी सेकरोड़ों लोगों का भरण-पोषण होता है। कराची, लाहौर और मुल्तान को पानी सिंधू और उसकी सहायक नदियां ही सप्लाई करती हैं। पाकिस्तान के तरबेला और मंगला जैसे पॉवर प्रोजेक्ट इस नदी पर निर्भर करते हैं। एक्सपर्ट के मुताबिक अगर भारत ने पानी रोका तो पाकिस्तान में खेती नहीं होगी, जिससे लोगों को खाने के लाले पड़ जाएगे। पाकिस्तान की शहरी जल आपूर्ति रुक जाएगी, जिससे वहां अशांति फैल जाएगी बिजली उत्पादन ठप हो जाएगा, जिससे उद्योग और शहरी इलाकों में अंधेरा छा जाएगा।
पाकिस्तान को फिल्हाल कोई असर नहीं
मगर फिल्हाल पाकिस्तान को इस कदम का कोई असर नहीं पड़ेगा। क्योंकि भारत ने सिंधू नदी का पानी रोकने के लिए एक ही बांध बनाया है। फिल्हाल भारत सिंधू के पानी को रोकने की स्थिती में नहीं है। सिंधु नदी का पानी रोकने के लिए बांध की जरूरत है, जिस पर अरबों रुपए का खर्च आएगा। अगर हम भाखड़ा डैम से सिंधू नदी की तुलना करें तो सिंधू नदी का बहाव भाखड़ा से कई गुणा ज्यादा है। भाखड़ा नहर की मुख्य शाखाओं में कुल मिलाकर लगभग 25,000 से 30,000 क्यूसेक तक का प्रवाह होता है, जबकि सिंधू नदी (Indus River) का प्रवाह प्रतिदिन करीब 5,67,000 क्यूसेक (cusecs) है।
भाखड़ा नांगल बांध परियोजना की कुल निर्माण लागत लगभग ₹245.28 करोड़ (2.45 अरब रुपये) थी, जब इसका निर्माण 1948 से 1963 के बीच हुआ था। इस परियोजना में लगभग 1,01,600 टन स्टील का उपयोग किया गया था। यदि इस लागत को आज के मूल्य स्तर पर देखें ये लगभग ₹4,745 करोड़ के आसपास हो सकती है, हालांकि यह अनुमान उस समय की मुद्रास्फीति दर और अन्य आर्थिक कारकों पर निर्भर करेगा।
क्या है सिंधु जल समझौता ?
सिंधु जल समझौता रावलपिंडी में तत्कालीन प्रधान मंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तानी मिलिट्री जनरल अयूब खान के बीच कराची में सितंबर 1960 में हुआ था। इसमें विश्व बैंक मीडिएटर था। सितंबर 1951 में विश्व बैंक के अध्यक्ष यूजीन रॉबर्ट ब्लेक मध्यस्थ बने। करीब 10 साल कई बैठकों और बातचीत के बाद 19 सितंबर 1960 को भारत और पाकिस्तान के बीच जल पर समझौता हुआ। 12 जनवरी 1961 से समझौता लागू हो गया। 6 नदियों के पानी का बंटवारा तय हुआ, जो भारत से पाकिस्तान जाती हैं। 3 पूर्वी नदियों (रावी, ब्यास और सतलज) का पानी भारत को मिला।3 पश्चिमी नदियों (झेलम, चिनाब, सिंधु) के पानी के बहाव को बिना बाधा पाकिस्तान को दिया गया।
62 साल पुराना है समझौता
62 साल पुराने जल समझौते के तहत भारत को सिंधु और उसकी सहायक नदियों से 19.5 फीसदी पानी मिलता है। बाकी करीब 80 फीसदी पाकिस्तान को। भारत अपने हिस्से में से करीब 90 फीसदी पानी ही उपयोग करता है। साल 1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु घाटी को 6 नदियों में विभाजित करते हुए इस समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। समझौते के तहत दोनो देशों के बीच प्रत्येक साल सिंधु जल आयोग की बैठक अनिवार्य है
साल 1947 में आजादी के बाद से पानी को लेकर पहला विवाद हुआ था। साल 1948 में भारत ने पानी रोक दिया और पाकिस्तान की हायतौबा के बाद 1949 में एक अमेरिकी विशेषज्ञ डेविड लिलियेन्थल ने इस समस्या को राजनीतिक स्तर से हटाकर टेक्निकल और व्यापारिक स्तर पर सुलझाने की सलाह दी। लिलियेन्थल ने विश्व बैंक से मदद लेने की सिफारिश भी की थी।
समझौते का मकसद
सिंधु जल समझौते का मकसद था कि दोनों देशों में जल को लेकर कोई संघर्ष न हो और खेती करने में बाधा न आए। हालांकि भारत ने हमेशा इस संधि का सम्मान किया, जबकि पाकिस्तान पर आतंकवाद को समर्थन देने के आरोप लगातार लगते रहे हैं। भारत के पाकिस्तान से तीन युद्ध हो चुके हैं, लेकिन भारत ने कभी भी पानी नहीं रोका था, लेकिन पाकिस्तान हर बार भारत में आतंकी हमले के लिए जिम्मेदार होता है।
संधि कैसे काम करती है?
विश्व बैंक की मध्यस्थता में वर्षों की बातचीत के बाद 1960 में हस्ताक्षरित सिंधु जल संधि दुनिया के सबसे टिकाऊ सीमा पार जल समझौतों में से एक रही है। इसने सिंधु बेसिन की छह नदियों को दोनों देशों के बीच बांट दिया। भारत को तीन पूर्वी नदियाँ (रावी, ब्यास और सतलुज) मिलीं। पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियाँ (सिंधु, झेलम और चिनाब) मिलीं, जो साझा बेसिन के अधिकांश पानी (लगभग 80 प्रतिशत) के लिए ज़िम्मेदार हैं।
संधि सहयोग और संघर्ष समाधान के लिए एक स्थायी तंत्र भी प्रदान करती है। एक स्थायी सिंधु आयोग मौजूद है, जिसमें प्रत्येक देश से एक आयुक्त होता है, जिसका काम डेटा का आदान-प्रदान करना, नई परियोजनाओं की समीक्षा करना और नियमित रूप से बैठकें करना होता है।
असहमति को एक स्तरित प्रक्रिया का उपयोग करके हल किया जाता है: तकनीकी प्रश्न पहले आयोग के पास जाते हैं, अनसुलझे मतभेदों को एक तटस्थ विशेषज्ञ को भेजा जा सकता है, और कानूनी विवादों को एक अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता न्यायालय में भेजा जा सकता है, जिसमें विश्व बैंक दोनों मंचों में भूमिका निभाता है। इस प्रक्रिया का उपयोग भारत की बगलिहार और किशनगंगा बांधों पर असहमति को हल करने के लिए पहले भी किया गया है - इसे एकतरफा कार्रवाई को रोकने के लिए डिज़ाइन किया गया है। संधि की कोई समाप्ति तिथि नहीं है, और इसमें निलंबन का कोई प्रावधान नहीं है। अनुच्छेद XII स्पष्ट करता है कि इसे केवल आपसी सहमति से ही संशोधित किया जा सकता है। हालांकि ऐसा कभी नहीं हुआ।
जल विज्ञान संबंधी वास्तविकता
ऐसे समय में एक सामान्य प्रश्न यह उठता है कि क्या भारत पाकिस्तान में पानी के प्रवाह को आसानी से रोक सकता है। फिल्हाल ऐसा मुमकिन नहीं। निश्चित रूप से उस पैमाने पर नहीं, जो उच्च प्रवाह के मौसम में बहाव में कोई महत्वपूर्ण कमी ला सके।
सिंधु, झेलम और चेनाब बहुत बड़ी नदियाँ हैं। मई से सितंबर के बीच, जब बर्फ पिघलती है, तो ये नदियाँ दसियों अरब क्यूबिक मीटर पानी ले जाती हैं। भारत के पास इन नदियों पर कुछ अपस्ट्रीम इंफ्रास्ट्रक्चर है, जिसमें बगलिहार और किशनगंगा बांध शामिल हैं, लेकिन इनमें से कोई भी इस तरह के वॉल्यूम को रोकने के लिए डिज़ाइन नहीं किया गया है। ये रन-ऑफ-द-रिवर हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट हैं जिनमें बहुत सीमित लाइव स्टोरेज है। भले ही भारत अपने सभी मौजूदा बांधों में पानी छोड़ने का समन्वय करे, लेकिन वह सिर्फ़ प्रवाह के समय को थोड़ा बदल सकता है।
इस उच्च प्रवाह अवधि के दौरान पश्चिमी नदियों में कुल मात्रा इतनी अधिक है कि बिना अपने स्वयं के ऊपरी क्षेत्रों में बाढ़ लाए इसे सार्थक रूप से बाधित करना संभव नहीं है। भारत पहले से ही संधि के तहत उसे आवंटित पूर्वी नदियों के अधिकांश प्रवाह का उपयोग करता है, इसलिए उन नदियों पर किसी भी नई कार्रवाई का निचले इलाकों पर अधिक सीमित प्रभाव पड़ेगा।
मगर शुष्क मौसम में जब बहाव कम होता है तब पानी रोकना मायने रखता है। यही वह जगह है जहाँ संधि बाधाओं की अनुपस्थिति अधिक तीव्रता से महसूस की जा सकती है। अगर भारत पानी कंट्रोल करता है तो पाकिस्तान का बुनियादी ढांचा ही हिल जाएगा। मगर ये रास्ता सीधा नहीं है। किसी भी बड़े पैमाने के बांध या डायवर्जन परियोजना को बनाने में वर्षों लगेंगे। कश्मीर में महत्वपूर्ण जल भंडारण के लिए उपलब्ध स्थल सीमित और भूगर्भीय रूप से चुनौतीपूर्ण हैं। वित्तीय लागत बहुत अधिक होगी। और राजनीतिक जोखिम और भी अधिक होगा।
इसके अलावा जल विज्ञान संबंधी बाधाएं भी हैं। चेनाब या झेलम जैसी नदियों के उच्च प्रवाह को रोकने से भारत में ही ऊपरी इलाकों में बाढ़ का खतरा है। और सिंधु बेसिन से पानी को पूरी तरह से भारत के दूसरे हिस्सों में मोड़ने के विचार के लिए भारी बुनियादी ढांचे और ऊर्जा लागत की आवश्यकता होगी, जिसे शांति के समय में भी उचित ठहराना मुश्किल होगा।
पाकिस्तान के लिए संभावित परिणाम
सिंधु, झेलम और चिनाब का प्रवाह पाक की कृषि, हमारे शहरों, हमारी ऊर्जा प्रणाली की रीढ़ है। इस समय, हमारे पास इन जल का कोई विकल्प नहीं है।
पाकिस्तान के लिए, भारत की सख्ती का प्रभाव दूरगामी हो सकता है। पाकिस्तान की सिंचाई प्रणाली दुनिया की सबसे बड़ी प्रणालियों में से एक है, और यह लगभग पूरी तरह से पश्चिमी नदियों से आने वाले प्रवाह के पूर्वानुमानित समय पर निर्भर करती है। किसान उन प्रवाहों के आसपास अपनी बुवाई की योजना बनाते हैं। नहरों के कार्यक्रम दशकों से चली आ रही धारणाओं के आधार पर बनाए गए हैं। यदि उस लय में थोड़ा भी व्यवधान आता है, तो जल प्रणाली कमज़ोर पड़ने लगेगी।
सबसे तात्कालिक जोखिम पूर्वानुमान को लेकर है। भले ही पाकिस्तान में आने वाले पानी की कुल मात्रा में तुरंत बदलाव न हो, लेकिन पानी के आने के समय में होने वाले छोटे-छोटे बदलाव वास्तविक समस्याएं पैदा कर सकते हैं। गेहूं की बुवाई के चक्र के दौरान देर से होने वाली देरी या शुष्क सर्दियों के महीनों के दौरान प्रवाह में अप्रत्याशित गिरावट का मतलब है बुवाई के समय को चूकना, कम पैदावार और उच्च लागत। मीठे पानी के कम प्रवाह के कारण सिंधु डेल्टा पहले से ही सिकुड़ रहा है। अपस्ट्रीम प्रवाह में और अनिश्चितता उस गिरावट को और तेज कर सकती है, जिसका तटीय आजीविका और मत्स्य पालन पर असर पड़ सकता है।
नदी के समय में कोई भी कमी या बदलाव राज्य को जल आवंटन के बारे में कठोर निर्णय लेने के लिए बाध्य करेगा। इससे अंतर-प्रांतीय तनाव बढ़ने का खतरा है, खासकर पंजाब और सिंध के बीच, जहां जल-बंटवारे की बहस पहले से ही राजनीतिक रूप से गर्म है।
फिर ऊर्जा है। पाकिस्तान की एक तिहाई बिजली जलविद्युत से आती है, जो तरबेला, मंगला और अन्य जलाशयों से बहने वाले पानी से उत्पन्न होती है। यदि अपस्ट्रीम प्रवाह कम हो जाता है या गलत समय पर होता है, तो इससे उत्पादन क्षमता में कमी आ सकती है। इनमें से कोई भी बात अटकलबाजी नहीं है। पाकिस्तान पहले से ही पानी की कमी वाला देश है, जो किनारे के करीब है। एक प्रणाली जो लंबे समय से कम मार्जिन पर चल रही है, अब अनिश्चितता की एक नई परत का सामना कर रही है।