संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज ने छत्तीसगढ़ के चंद्रगिरी तीर्थ में समाधि ले ली। उनकी समाधि लेने के बाद मध्य प्रदेश सरकार ने आधे दिन का राजकीय शोक घोषित कर दिया है। वे 3 दिनों के उपवास के बाद रात 2.30 बजे ब्रह्मलीन हुए।
उनके समाधि लेने से पूरे जैन समाज में शोक की लहर है। वे कुछ दिनों बिमार चल रहे थे। आचार्य श्री विद्यासागर जी 10 अक्टूबर 1946 को कर्नाटक के बेलगांव जिले के सदलगा में शरद पूर्णिमा को जन्मे थे। उनके बचपन का नाम विद्याधर था। उन्होंने 30 जून 1968 को अजमेर में मुनि दीक्षा ली। 22 नवंबर 1972 को उन्हें आचार्य पद मिला था। उन्हें आचार्य ज्ञान सागर जी ने दीक्षा दी थी।
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कन्नड़, हिंदी, संस्कृत थे एक्सपर्ट
जानकारी मुताबिक उनके माता पिता सहित सभी भाई बहिनों ने जैनीश्वरी दीक्षा ली थी। आचार्य विद्यासागर कन्नड़, हिंदी, संस्कृत के भाषा एक्सपर्ट तो थे ही, साथ ही उन्हें कई अन्य भाषाओं का ज्ञान भी था। वे हिंदी बोलने पर जोर देते थे और भारत को भारत बोलने की अपील करते थे।
इन चीजों का किया था त्याग
1968 से दिगंबर अवस्था में रहते हुए वे कभी वाहन पर नहीं बैठे। अनियत विहार यानी बिना बताए विहार करते थे। दही, शक्कर, नमक, तेल, फल, सूखे मेवे, हरी सब्जी पांच रसों समेत अंग्रेजी दवाओं का आजीवन त्याग किया था। कठोर ठंड में भी कभी चटाई भी नहीं ली. भौतिक संसाधनों सहित थूकने का त्याग किया।
सरकार ने उनके नाम से गौशाला योजना भी चलाई
सभी मौसम में लकड़ी के तखत पर सिर्फ रात के समय एक करवट पर सोते थे। पूरे विश्व में सबसे ज्यादा जैनेश्वरी दीक्षाएं देने वाले गुरु थे। पशुओं के लिए भी उनके मन में दया प्रेम का भाव था। उन्होंने कई गौशालाएं बनावाईं। राज्य सरकार ने आचार्य श्री के नाम से गौशाला योजना भी चलाई। लड़कियों की शिक्षा के लिए प्रतिभा स्थलियों(Talent Site) का निर्माण आचार्य श्री की प्रेरणा से हुआ।
जैनेश्वरी दीक्षा क्या होती है?
जैन धर्म में दीक्षा लेना यानी सभी भौतिक सुख-सुविधाएं त्यागकर एक सन्यासी का जीवन बिताने के लिए खुद को समर्पित कर देना। जैन धर्म में इसे चरित्र या महानिभिश्रमण भी कहा जाता है। दीक्षा समारोह एक कार्यक्रम होता है जिसमें होने वाले रीति रिवाजों के बाद से दीक्षा लेने वाले लड़के साधु और लड़कियां साध्वी बन जाती हैं।