इम्तियाज अली की यह म्यूजिकल बायोपिक पंजाब के बेहद लोकप्रिय, लेकिन बदनाम सिंगर अमर सिंह चमकीला की जिंदगी पर आधारित है। चमकीला की हत्या कर दी गई थी। बात 80 के दशक की है, जब उनकी और उनकी पत्नी अमरजोत को नकाबपोश बंदूकधारियों ने गोलियों से छलनी कर दिया। हत्या से पहले चमकीला को अश्लील गीत लिखने और गाने के लिए अज्ञात धमकियां मिली थीं। उनके गीतों को खासकर महिलाओं के लिए आपत्तिजनक बताया गया था। फिल्म में दिलजीत दोसांझ और परिणीति चोपड़ा लीड रोल में हैं। दिलजीत ने वाकई दिल जीत लिया है।
'अमर सिंह चमकीला' मूवी रिव्यू
'अमर सिंह चमकीला' मार्मिक है, उत्तेजक है और किसी कविता की तरह है, जो ज्वलंत भावनाओं को जगाती है। फिल्म में उद्देश्य भी है, सहानुभूति भी। यह बायोपिक आपको खुद के अंदर झांकने पर भी मजबूर करती है। फिल्म देखते हुए मन में कई सवाल उठते हैं। मसलन, क्या हम अस्तित्व के गुलाम हैं? कला क्या है? यह कौन तय करता है कि कला के रूप में क्या सही है और क्या गलत? क्या सम्मान के बिना प्रसिद्धि मायने रखती है? क्या किसी से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वह जीवनभर नफरत और अपमान सहते रहे, वो भी इसलिए कि उसने एक फैसला लिया? और क्या आप कला को कलाकार से अलग कर सकते हैं? यकीनन हम भी को आलोचना करने का अधिकार है, लेकिन क्या हमें किसी पर बैन लगाने का भी अधिकार है?
हम सभी इम्तियाज अली की फिल्मों के दीवाने हैं। फिर चाहे वह 'तमाशा' में वेद-तारा हो, 'रॉकस्टार' का जॉर्डन हो या 'लव आज कल' के जय और मीरा, इम्तियाज की फिल्मों में मुख्य किरदार अक्सर वो हैं, जो समाज की आम सोच से अलग धारणा रखते हैं। कभी-कभी उन किरदारों को खुद इसके बारे में जानकारी नहीं होती। वो अपनी पसंद से विद्रोही नहीं हैं, बल्कि आजादी की चाह, खुले तौर पर जीने और जिंदगी के उद्देश्य की खोज में जुटे हुए हैं।
अमर सिंह चमकिला, अपने आप में कोई हीरो नहीं है। ना ही वह समाज का तिरस्कार करता है, बल्कि वह झुकना नहीं चाहता। अधीन रहने की बजाय, वह धमकियों से बचने का विकल्प चुनता है। मनोरंजन के साथ-साथ, यह फिल्म 80-90 के दशक के बैन कल्चर, धार्मिक कट्टरपंथियों की राजनीति और दमित कामुकता पर भी एक ठोस टिप्पणी करती है।
करीब 2 घंटे और 25 मिनट की यह फिल्म बहुत कुछ समेटे हुए है। इसे नॉन लीनियर स्टोरीटेलिंग, जॉनर हॉपिंग (डॉक्यू ड्रामा-म्यूजिकल-सेमी इन्वेस्टिगेटिव) और उस दौर की राजनीतिक के इर्द-गिर्द भी बुना गया है। फिल्म की कहानी सपाट नहीं चलती। यह आपको बीच-बीच में टोकती है, रोकती है, सोचने पर मजबूर करती है। पंजाब को हमेशा एक ऐसे राज्य के तौर पर देखा गया है, जहां सबकुछ अतिशय है। फिर चाहे वहां हद से अधिक प्यार का जुनून हो या नियंत्रण का दबाव। फिल्म का दूसरा हिस्सा थोड़ा दोहराव वाला लगता है, लेकिन एआर रहमान का बैकग्राउंड म्यूजिक और दिलजीत दोसांझ का देहाती अंदाज में गाना इसकी गति बनाए रखते हैं।
यह फिल्म पूरी तरह से दिलजीत दोसांझ की है। वह एक बेहतरीन सिंगर तो हैं ही, फिल्म में उन्होंने अपने एक्टिंग करियर का अब तक का बेस्ट दिया है। वह पर्दे पर विनम्रता, हताशा और गुस्से जैसे भाव को शानदार ढंग से उकेरते हैं। हालांकि, यह उम्मीद करना बेमानी है कि परिणीति चोपड़ा भी फिल्म में दिलजीत की गायकी की बराबरी करेंगी, लेकिन पर्दे पर उनकी मौजूदगी अच्छी है। हां, दिलजीत की तुलना में कई महत्वपूर्ण और जरूरी सीन्स में फीकी पड़ जाती हैं।
'अमर सिंह चमकीला' फिल्म का कैमरा वर्क विशेष रूप ध्यान खींचता है। खाकसर नरम कालजा में, जहां लड़कियां सीधे कैमरे से बात करती हैं। यह फिल्म खत्म होने के बाद भी आपके साथ बने रहता है। वन-लाइनर्स चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हैं। अमर सिंह चमकीला की प्रतिष्ठा संदिग्ध रही है। यह फिल्म उनके जीवन के प्रति एक ऐसा नजरिया पेश करती है, जहां किए के लिए पछतावा नहीं है। यह केवल उसे सुनने का मौका देती है। फिल्म चमकीला के अस्तित्व, उसके शर्म और सामाजिक प्रतिष्ठा की सहानुभूति से भरी कहानी है, जो कम से कम एक बार देखनी ही चाहिए।