फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर आज रिलीज हो गई है। वीर सावरकर की जिंदगी पर बेस्ड इस फिल्म की लेंथ 2 घंटे 58 मिनट है।
फिल्म की कहानी
कहानी की शुरुआत 18 वीं सदी के अंत के दृश्यों से होती है। देश में प्लेग महामारी फैली हुई है। लोग मरे जा रहे हैं। देश गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। इसी बीच महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव में विनायक दामोदर सावरकर का जन्म होता है। रणदीप हुड्डा ने सावरकर का किरदार निभाया है। विनायक दामोदर सावरकर के अंदर बचपन से ही अंग्रेजों के खिलाफ एक गुस्सा है। वे अपने देश से अंग्रेजों को भगाना चाहते हैं। इसके लिए वे अभिनव भारत नाम से एक संगठन भी बनाते हैं।
सावरकर का हमेशा से यही मानना था कि अंग्रेजों को अहिंसा से नहीं हराया जा सकता। इसके लिए वे लोगों को हथियार उठाने के लिए आह्वान भी करते हैं। अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए सावरकर उन्हीं के देश लंदन चले जाते हैं। वहीं से वे अपनी क्रांति जारी रखते हैं। वहां उनके कुछ सहयोगी अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर देते हैं। फिर सावरकर के ऊपर साजिश करने का आरोप लगाया जाता है। उन्हें गैरकानूनी रूप से भारत भेजकर कालापानी की सजा दे दी जाती है। कालापानी की सजा के दौरान उन्हें असहनीय पीड़ा दी जाती है।
कई साल जेल में बिताने के बाद सावरकर एक के बाद एक कई दया याचिका दायर करते हैं। हालांकि, इन याचिकाओं के पीछे भी उनकी एक सोची समझी रणनीति रहती है। सावरकर कहते हैं कि जेल में रहकर मरने से बेहतर है कि बाहर निकलकर देश के लिए कुछ किया जाए। जेल से छूटने के बाद उनका संपर्क भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस और महात्मा गांधी से होता है। इसके बाद देश को आजादी मिलने तक सावरकर अपनी लड़ाई लड़ते हैं।
स्टारकास्ट की एक्टिंग
पूरी फिल्म में सिर्फ रणदीप हुड्डा की दिखाई देंगे। रणदीप को देख कर यही लगता है कि सावरकर के रोल में उनसे बेहतर शायद ही कोई कास्ट हो सकता था। ऐसा लगा कि हम सावरकर को ही पर्दे पर देख रहे हैं। काला पानी वाले सीक्वेंस में रणदीप हुड्डा ने असाधारण एक्टिंग की है। इस रोल के लिए उन्होंने जो मेहनत की है, वो पर्दे पर साफ दिखाई देती है।
सावरकर के भाई के रोल में अमित सियाल और पत्नी के किरदार में अंकिता लोखंडे ने प्रभावित किया है। इसके अलावा कास्टिंग थोड़ी और बेहतर हो सकती थी, जैसे गांधी जी के रोल के लिए इससे बेहतर एक्टर को लिया जा सकता था। डॉ. अम्बेडकर का किरदार निभाने वाला एक्टर भी नहीं जंचा है।
डायरेक्शन
इस फिल्म के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और राइटर रणदीप हुड्डा ही हैं। यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि अपनी पहली डायरेक्टोरियल फिल्म में उन्होंने कमाल का काम किया है। 19वीं सदी के सीक्वेंस बिल्कुल असली लगते हैं। जेल के सीक्वेंस तो आपकी रूह कंपा देंगे। फर्स्ट हाफ में कहानी थोड़ी स्लो चलती है, लेकिन सेकेंड हाफ में आते-आते रफ्तार पकड़ लेती है। फिल्म के वन लाइनर्स और डायलॉग्स ताली बजाने पर मजबूर कर देंगे। महात्मा गांधी और सावरकर के बीच के संवाद काफी मजेदार हैं। दोनों के बीच गजब के वैचारिक मतभेद दिखाए गए हैं। कुछ सीन्स ऐसे हैं, जो आपको इमोशनल कर सकते हैं।
सिनेमैटोग्राफी की भी तारीफ बनती है। आजादी के पहले का भारत कैसा होगा, सिनेमैटोग्राफर अरविंद कृष्णा ने इसे काफी बेहतरीन ढंग से दिखाने की कोशिश की है। फिल्म का कलर टोन डॉर्क ही रखा गया है। जैसा फिल्म का टॉपिक है, गाने भी उसी हिसाब से रखे गए हैं। अगर आप सोच रहे हैं कि फिल्म में कुछ झूमने वाले देशभक्ति गाने होंगे तो ऐसा नहीं है। फिल्म के अंत में एक गाना जरूर आता है जो थोड़ा अलग और मराठी फ्लेवर वाला है।
भारत में बहुत से स्वतंत्रता सेनानी हुए हैं, जिनके बारे में अभी भी बहुत कम जानकारी है। वीर सावरकर के नाम की चर्चा तो हमेशा से थी, लेकिन इनके बारे में आम जनमानस को ज्यादा जानकारी नहीं थी। इस फिल्म के जरिए आपको उनके बारे में सब कुछ जानने का मौका मिलेगा। देश की स्वतंत्रता के लिए उन्होंने जो कष्ट और यातनाएं झेलीं, उसके बारे में सभी को जानना चाहिए। अगर आपको सावरकर के त्याग और समर्पण को जानना हो, तो इस फिल्म के लिए बिल्कुल जा सकते हैं। देश में चुनाव का माहौल है, इस फिल्म में कई ऐसे संवाद हैं, जो कई राजनीतिक पार्टियों को खटक सकते हैं, इसलिए कुछ लोग इसे प्रोपेगैंडा फिल्म भी समझ सकते हैं।