Web Khabaristan News New Delhi : Being Raised About Majority देश में लोकसभा चुनाव अप्रैल-मई में की तपती गर्मी में ही हो रहे हैं। हर बार लोग सोचते हैं कि आखिर इस गर्मियों से पहले ही चुनाव क्यों नहीं कराए जा सकते? इस बार तो गर्मी का ऐसा आलम है कि बेंग्लुरु जैसे दक्षिणी शहर में भी 26 अप्रैल को तापमान 38 डिग्री था। केरल में एक पोलिंग एजेंट समेत नौ लोगों की मौत लू लग जाने से हो गई। शुरुआती दौर के मतदान में चौतरफा गिरावट दर्ज हुई है और इससे उम्मीदवारों से लेकर राजनीतिक दलों तक में बेचैनी है। सवाल उठता है कि क्या वाकई गर्मी के कारण लोग वोट देने के लिए घरों से नहीं निकले? या यह लोगों की राजनीतिक दलों और नेताओं को लेकर उदासीनता है और 'लोकतंत्र के पर्व' के प्रति उनका भ्रम टूट गया है? या फिर ऐसा है कि लोगों के मन में किसी की जीत या किसी की हार को लेकर इतनी मजबूत धारणा बन गई है कि उन्हें लगा कि वोट देने या न देने से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला? प्रधानमंत्री मोदी ने फरवरी में पार्टी कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे बीजेपी के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 से अधिक सीटें हासिल करने के लक्ष्य को सामने रखकर काम करें।
शहरी बनाम ग्रामीण मतदान में मामूली अंतर (Being Raised About Majority)
बेशक, शहरी बनाम ग्रामीण मतदान में मामूली अंतर रहा, लेकिन ऐसा लगता है कि मध्य वर्ग के मतदाताओं में इस हद तक हताशा है कि वे घर से निकले ही नहीं। उस पर चुनाव आयोग ने मतदान प्रतिशत का अंतिम आंकड़ा साफ-साफ न बताकर भ्रम को और बढ़ा दिया। आखिरकार 30 अप्रैल को बताया गया कि मतदान 65-66 प्रतिशत रहा। जबकि पहले चरण की वोटिंग को 11 दिन और दूसरे चरण की वोटिंग को चार दिन बीत चुके थे। दोनों चरण के मतदान के दिन शाम 7 बजे चुनाव आयोग ने 60 फीसदी का प्रोविजनल मतदान प्रतिशत बताया था। बहरहाल, आयोग की ओर से अंतिम मतदान प्रतिशत बताने में हुई देरी से चुनाव विश्लेषक भी भ्रम में रहे।
गिरावट साफ तौर पर बीजेपी के लिए चिंता (Being Raised About Majority)
पूर्व चुनाव विश्लेषक योगेंद्र यादव ने कहा भी कि पहले तो चुनाव के अगले दिन ही मतदान प्रतिशत की जानकारी दे दी जाती थी। इस बाबत योगेंद्र यादव खुलकर कहते हैं कि मतदान प्रतिशत में यह गिरावट साफ तौर पर बीजेपी के लिए चिंता की बात होनी चाहिए। योगेंद्र यादव मानते हैं कि मोदी के प्रति लोगों में कोई नाराजगी नहीं है और वह आज भी खासे लोकप्रिय हैं और मुख्य रूप से इसके दो कारण हैं- एक, प्रधानमंत्री मोदी ने भगवान की तरह का आभामंडल बना लिया है और दूसरा, विपक्षी दलों के पास उनकी तरह का कोई स्टार नहीं है। वह कहते हैं कि गांवों के वोटरों को न तो इलेक्टोरल बॉण्ड का पता है और न ही कांग्रेस के घोषणापत्र का।
नतीजों में हेरफेर की आशंका बनी हुई है (Being Raised About Majority)
सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने बड़े बेबाक तरीके से अपनी बात रखी। एक्स पर उन्होंने कहा, 'नतीजों में हेरफेर की आशंका बनी हुई है क्योंकि कुल वोटिंग को वोटों की गिनती के समय बदला जा सकता है।' 2014 तक तो ये आंकड़े चुनाव आयोग की वेबसाइट पर आ जाया करते थे। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कई क्षेत्रों में मतदान राष्ट्रीय औसत से 8-14 फीसदी कम रहा। राजनीतिक विश्लेषक अमिताभ तिवारी अपने कॉलम में लिखते हैः 'ज्यादा वोट का संकेत बदलाव का होता है जबकि कम वोट दोहराव का संकेत होता है।' केवल 1999 में वोटिंग कम हुई थी, यानी जब बीजेपी ने सरकार बनाई, उनमें 80 फीसदी मामलों में वोटिंग ज्यादा हुई।
भगवा लहर होने की खुशफहमी सही नहीं (Being Raised About Majority)
बीजेपी का गढ़ माने जाने वाले बेंगलुरू दक्षिण से उम्मीदवार तेजस्वी सूर्या ने जब यह कहा कि यह शर्म की बात होगी कि 20 फीसदी आबादी वाले मुसलमान तो 80 फीसदी वोटिंग करें और 80 फीसदी आबादी वाले हिन्दू महज 20 फीसदी वोटिंग करें, तो उससे पता चलता है कि बीजेपी में कितनी घबराहट है। बीजेपी के अन्य नेताओं को भी यह कहते सुना जा सकता है कि 'भगवा लहर' को लेकर खुशफहमी में रहना सही नहीं। 2014 और 2019 के चुनावों में जिस तरह राष्ट्रीय मुद्दे हावी थे, इस बार वैसी स्थिति भी नहीं और स्थानीय मुद्दे और स्थानीय पसंद नैरेटिव तय कर रहे हैं। इस कारण बीजेपी को नुकसान हो सकता है।
क्षेत्रीय भावनाओं को बेहतर समझते हैं दल (Being Raised About Majority)
जहां तक स्थानीय मुद्दों की बात है, स्वाभाविक सी बात है कि क्षेत्रीय दल क्षेत्रीय भावनाओं को बेहतर समझते हैं। इसकी बानगी महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार, तमिलनाडु में एम के स्टालिन, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, बिहार में तेजस्वी यादव और उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के चुनाव अभियान में मिलती है। बीजेपी की पूरी कोशिश रही कि वह चुनाव को मोदी बनाम राहुल का जामा पहना दे, लेकिन अब तक ऐसा नहीं हो सका है। इन राज्यों में बीजेपी को जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है और सांसदों के पास निर्वाचन क्षेत्र को बताने के लिए कुछ नहीं है और इसकी एक वजह सारी शक्तियों के चंद हाथों में सिमटकर रह जाना है।
2019 के प्रदर्शन को दोहराने आए बीजेपी (Being Raised About Majority)
प्रदीप गुप्ता जैसे राजनीतिक टिप्पणीकार और चुनाव विश्लेषक कहते हैं कि 2019 के प्रदर्शन को दोहराने के लिए बीजेपी को उत्तरी और पश्चिमी राज्यों में वैसा ही कारनामा दिखाना होगा। यानी, गुजरात में सभी 26 सीटों, राजस्थान की सभी 25 सीटों, हरियाणा की सभी 10 सीटों, उत्तराखंड की सभी 5 सीटों, महाराष्ट्र की 48 में से 41 सीटों, मध्य प्रदेश की 29 में से 28 सीटों, कर्नाटक की 28 में से 25 सीटों, बिहार में 40 में से 39 सीटों, तेलंगाना में 17 में से 13 सीटों को जीतना होगा। इन सबसे मुश्किल मोर्चा है यूपी का जहां बीजेपी ने 80 में से 62 सीटें जीती थीं। 2019 में बीजेपी के पक्ष में एक और बात रही थी कि उसने कई सीटों पर कम अंतर से जीत हासिल की थी।
भरोसा दिलाने में नाकाम रहे विपक्षी दल (Being Raised About Majority)
लेकिन दूसरे चुनाव विश्लेषक थोड़ी सावधानी बरतते हुए कहते हैं कि जमीन पर विपक्षी दल नहीं दिखे और वे अपने मतदाताओं को भरोसा दिलाने में नाकाम रहे। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी इसी तरह का दावा करते हैं कि विपक्ष के समर्थक घरों से नहीं निकले। वैसे, इस तरह की दलीलें भी दी जा रही हैं कि बीजेपी के समर्थक जीत के प्रति कुछ ज्यादा ही आश्वस्त दिखे और अगर बीजेपी के वोट प्रतिशत में 2-3 फीसदी की भी कमी आ जाती है तो बीजेपी के 2019 में जीती 303 सीटों के आंकड़े में काफी गिरावट आ सकती है। सरकार बनाने के लिए बहुमत का आंकड़ा 272 है।
उदारीकरण के नाम पर 400 पार का नारा (Being Raised About Majority)
मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार और अर्थशास्त्री संजय बारू कहते हैं कि बीजेपी ऐसा संगठन है जिसमें सारी ताकत केवल दो लोगों के हाथ में है। बीजेपी और आरएसएस में ऐसे लोगों की बड़ी तादाद है जो अत्यधिक शक्तिशाली पीएम नहीं देखना चाहते और इसलिए वे चाहते हैं कि बीजेपी को 270 के आसपास सीटें आएं। संजय बारू लिखते हैं कि तीनों 'उदारवादी' प्रधानमंत्रियों- नरसिंह राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह- ने कमजोर गठबंधन सरकारें चलाईं। लेकिन उदारीकरण के नाम पर 'अब की बार, चार सौ पार' का नारा दिया जा रहा है। वैसे, लक्ष्य की कोई संभावना नहीं दिखती। लेकिन बीजेपी को दो तिहाई बहुमत ही चाहिए!
272 के आंकड़े को न छू सके तो बेहतर (Being Raised About Majority)
अमित शाह बेशक भागे-भागे पुलिस के पास पहुंचे जब उनके नाम से चले वीडियो में आरक्षण खत्म करने के लिए संविधान बदलने की बात कही गई थी लेकिन बीजेपी के तमाम छोटे-बड़े नेता हैं जो गाहे-बेगाहे आरक्षण के खिलाफ बोलते रहे हैं। लेकिन मोदी तक डैमेज कंट्रोल करते दिखे जब उन्होंने कहा कि बाबा साहेब आंबेडकर भी होते तो संविधान नहीं बदल सकते थे। भारत ने गठबंधन की सरकारों के दौरान बेहतर काम किया। मोदी सरकार के पिछले दस साल की तुलना में मनमोहन सरकार के दौरान आर्थिक विकास दर, कृषि विकास दर और रोजगार दर अच्छी रही थी। वे शायद मान रहे हों कि बीजेपी 272 के आंकड़े को न छू सके तो बेहतर।
गठबंधन की राजनीति लौटने की संभावनाएं (Being Raised About Majority)
अशोका यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर सब्यसाची दास के रिसर्च पेपर से यह बात और भी अच्छी तरह सामने आती है। तब ऐसी कई सीटों पर बीजेपी की जीत के बाद मचे हो-हल्ले के बाद सब्यसाची दास को इस पर गंभीरता से काम करने की प्रेरणा मिली। इन सीटों में हेरफेर की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता। पांचवें दौर के मतदान के पहले तस्वीर का साफ होना मुश्किल है लेकिन ऐसा लगता है कि गठबंधन की राजनीति के लौटने की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। 1999 के आम चुनाव में बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए बहुमत पाने में सफल रहा और 1984 के बाद यह पहला मौका था।
तीसरी बार निर्णायक बहुमत पाने जा रही (Being Raised About Majority)
साथ ही यह लगातार तीसरा चुनाव था जब सबसे बड़ी पार्टी अपने बूते बहुमत पाने में विफल रही थी। यह रुख 2004 और फिर 2009 में भी कायम रहा। 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार के गठन के साथ यह सिलसिला टूट गया और 2019 में बीजेपी ने अपनी सीटों की संख्या बढ़ा ली। इस तरह बीजेपी वह पार्टी बनी जिसने 1984 के बाद अपने बूते बहुमत का आंकड़ा छू लिया। मार्च, 2024 तक तो यही लग रहा था कि बीजेपी लगातार तीसरी बार निर्णायक बहुमत पाने जा रही है। प्रधानमंत्री मोदी ने फरवरी में पार्टी कार्यकर्ताओं से अपील की कि वे बीजेपी के लिए 370 और एनडीए के लिए 400 से अधिक सीटें हासिल करने के लक्ष्य को सामने रखकर काम करें।