National flag, white color symbolizing religions and charkha Swadeshi movement : देश का पहला राष्ट्रीय ध्वज 7 अगस्त 1906 को कोलकाता के पारसी बागान स्क्वायर पर फहराया गया था। उसमें तीन प्रमुख रंग थे-लाल, पीला और हरा। बीच की पीली पट्टी पर ‘वंदे मातरम’ लिखा हुआ था। इसमें सूरज और आधे चांद के प्रतीक भी थे। समय के साथ ध्वज में संशोधन हुए। जो तिरंगा आज हम देखते हैं, उसका पहला संस्करण 1921 में पिंगली वेंकय्या द्वारा डिजाइन किया गया था। आजादी के दौर में अलग-अलग मौकों पर तरह-तरह के डिजाइन वाले झंडे इस्तेमाल हुए थे। इन सब का अपना महत्व था लेकिन आजाद भारत का कोई एक ही राष्ट्रीय ध्वज चुना जाना था। एक ऐसा प्रतीक जो सभी देशवासियों की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करें। इसी मुद्दे पर 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा में गहन चर्चा हुई, जिसके बाद संविधान सभा ने हमारे वर्तमान ध्वज यानी तिरंगे को मंजूरी दी।
सफेद रंग और चरखा लगाने की सलाह
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी पिंगली वेंकैया का जन्म 2 अगस्त 1876 को आंध्र प्रदेश के कृष्णा जिले में हुआ था। वेंकैया ने एक समय पर ब्रिटिश भारतीय सेना में सेवा दी थी और दक्षिण अफ्रीका के एंग्लो-बोअर युद्ध में भाग लिया था। यहीं वे महात्मा गांधी के संपर्क में आए। उनकी विचारधारा से बहुत प्रभावित होकर पिंगली वेंकैया भारत के आजादी लड़ाई में शामिल हो गए। पिंगली वेंकैया ने करीब 5 सालों के अध्ययन के बाद तिरंगे का डिजाइन बनाया था। उनके पहले डिजाइन में हरे और लाल रंग की पट्टियां थीं जो भारत के दो प्रमुख धर्मों का प्रतिनिधित्व करतीं थीं लेकिन इसे सब की सहमति नहीं मिली। 1921 में पिंगली जब इसे लेकर गांधी जी के पास गए तो उन्होंने ध्वज में एक सफेद रंग और चरखे को लगाने की सलाह दी। सफेद रंग भारत के बाकी धर्मों और चरखा स्वदेशी आंदोलन और आत्मनिर्भर होने का प्रतीक था।
झंडे में गदा जोड़ने की मांग की गई
पिंगली वेंकैया के बनाए ध्वज को खूब पसंद किया गया। 1923 में नागपुर में एक शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के दौरान हजारों लोगों ने इस ध्वज को अपने हाथों में थाम रखा था। 1931 में कांग्रेस ने इस ध्वज को अपने आधिकारिक ध्वज के तौर पर मान्यता दे दी। सुभाष चंद्र बोस ने भी दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इस ध्वज का इस्तेमाल किया था लेकिन इस दौरान ध्वज के रंगों और प्रतीकों को लेकर बहस भी हुई। कई लोग मांग करने लगे कि चरखे की जगह गदा होना चाहिए। इसके अलावा ध्वज के रंगों को धर्म से जोड़ने पर विवाद भी हुआ। सिखों ने मांग की कि या तो ध्वज में पीला रंग जोड़ा जाए या सभी तरह के धार्मिक प्रतीकों को हटाया जाए। जब देश की आजादी का ऐलान हुआ तो देश के सामने एक बड़ा सवाल था कि आजाद भारत का ध्वज कैसा होगा। इसका हल तलाशने के लिए 6 जून, 1947 को ध्वज समिति का गठन किया गया।
संविधान सभा ने बनाई झंडा समिति
समिति के अध्यक्ष राजेंद्र प्रसाद. उनके अलावा के एम मुंशी, अबुल कलाम आज़ाद और अंबेड़कर जैसे दिग्गज नेता भी समिति में शामिल थे। समिति ने मोटे तौर पर वहीं झंडा अपनाया जिसे कांग्रेस ने 1931 में मान्यता दी थी। हालांकि, चरखे के स्थान पर अशोक चक्र का सुझाव दिया गया। यह सुझाव ध्वज-समिति को संविधान सभा के उप सचिवालय बदर-उद-दीन एच.एफ. तैयबजी ने दिया था। वह तैयबीजी के पोते थे, जो एक समय पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे। रिपोर्ट के मुताबिक, समिति के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने चरखे को बदलने के प्रस्ताव पर गांधीजी से परामर्श करने की सलाह दी थी। इस पर तैयबजी की पत्नी ने एक नमूना बनाकर गांधीजी को भेजा। महात्मा गांधी उस प्रस्ताव से प्रसन्न हुए और ध्वज-समिति ने झंडे पर चरखे के स्थान पर चक्र को अपना लिया।
राष्ट्रीय ध्वज के रंगों की परिभाषा
राष्ट्रीय ध्वज में रंगों को लेकर बहस होती रही है। ऐसा ही कुछ तब देखने को मिला जब संविधान सभा 22 जुलाई, 1947 को राष्ट्रीय ध्वज पर चर्चा कर रही थी। उस दौरान सर्वेपल्ली राधाकृष्णन ने झंडे के रंगों और अशोक चक्र को अच्छे से परिभाषित किया। उन्होंने समझाया, भगवा रंग भगवा रंग त्याग की भावना का प्रतिनिधित्व करता है। यानी कि हमारे नेताओं को भौतिक लाभ की बजाय सामाजिक काम पर ध्यान देना चाहिए। बीच की सफेद पट्टी का सफेद रंग रोशनी को दिखाता है। सत्य का मार्ग जो हमारे आचरण को दिशा देगा। हरा रंग मिट्टी और पौधों से हमारा रिश्ते का प्रतीक है, जिस पर बाकी सारा जीवन निर्भर करता है। उन्होंने कहा कि अशोक चक्र, धर्म चक्र है। यह गति, प्रगति और उन्नति का प्रतीक है, जो भारत की प्रतिभा, परंपरा और संस्कृति के अनुकूल है।