खब्रिस्तान नेटवर्क: हिन्दू धर्म के पुरानों केअनुसार भगवन शिव जगत के कल्याण हेतु भारत वर्ष में 12 जगह पर ज्योतिर्लिंगों के रूप में प्रकट हुए. जिनमे से केदारनाथ भी एक है। कहने का मतलब केदारनाथ, चार धामों की यात्रा में से एक मानी जाती है। ये एक अनसुलझी संहिता है। इसका निर्माण आखिर किसने करवाया था। वहीँ विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था। कह सकते हैं कि ये मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है। लेकिन आपको बता दें कि 21वीं सदी में भी केदारनाथ की भूमि, भवन शिल्प के लिए सही नहीं मानी जाती है। ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ ठंड के दिन भारी मात्रा में बर्फ होती है और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी बहता है। वहीँ आज भी गाड़ी से उस स्थान तक जाना संभव नहीं है जहाँ आज "केदारनाथ मंदिर" बना हुआ है।
क्या कहते हैं वैज्ञानिक
बता दें की वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यदि मंदिर 10वीं शताब्दी में पृथ्वी पर होता, तो यह "हिम युग" की एक छोटी अवधि में होता। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया। यह "पत्थरों के जीवन" की पहचान करने के लिए किया जाता है। परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था। हालांकि, मंदिर के निर्माण में कोई नुकसान नहीं हुआ। वहीँ 2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को सभी ने देखा भी है । इस अवधि के दौरान औसत से 375% अधिक वर्षा हुई थी। जिसमे काफी जान,माल कि हानि हुई थी , लेकिन मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ। भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढांचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित पाया गया। बता दें की यह मंदिर "उत्तर-दक्षिण" दिशा में बनाया गया है। जब कि जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर "पूर्व-पश्चिम" में बने हुए हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मंदिर "पूर्व-पश्चिम" होता तो पहले ही नष्ट हो चुका होता। या कम से कम 2013 की बाढ़ में तबाह हो जाता। लेकिन इस दिशा की वजह से केदारनाथ मंदिर बच पाया।
पत्थर ढोने के लिए नही थे उपकरण उपलब्ध
बता दें कि इस मंदिर निर्माण में इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ है। लेकिन खास बात यह है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया पत्थर वहां उपलब्ध ही नहीं है, तो जरा सोचिए कि उस पत्थर को वहां उस समय पर कैसे ले जाया गया होगा। जबकि उस समय इतना बड़ा पत्थर ढोने के लिए इतने उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे। इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे रहने के बाद भी इसके "गुणों" में कोई अंतर नहीं आया है। 2013 में, वीटा घलाई के माध्यम से मंदिर के पिछले हिस्से में एक बड़ी चट्टान फंस गई और पानी की धार विभाजित हो गई और मंदिर के दोनों किनारों का पानी अपने साथ सब कुछ ले गया। लेकिन मंदिर और मंदिर में शरण लेने वाले लोग सुरक्षित रहे। जिन्हें अगले दिन भारतीय वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था। सवाल यह है कि आस्था पर विश्वास किया जाए या नहीं। लेकिन इसमें कोई शक नहीं है कि मंदिर के निर्माण के लिए स्थल, उसकी दिशा, वही निर्माण सामग्री और यहां तक कि प्रकृति को भी ध्यान से चुना गया और जो आज भी अपनी संस्कृति और ताकत को बनाए रखा हुआ है। आज तमाम बाढ़ों के बाद हम एक बार फिर केदारनाथ के उन वैज्ञानिकों के निर्माण के आगे नतमस्तक हैं, जिन्हें उसी भव्यता के साथ 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचा होने का सम्मान मिलेगा। यह एक उदाहरण है कि वैदिक हिंदू धर्म और संस्कृति कितनी उन्नत थी। उस समय हमारे ऋषि-मुनियों यानि वैज्ञानिकों ने वास्तुकला, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, आयुर्वेद में काफी तरक्की की थी।